Ādhunika Hindī ālocanāGrantha-Bhāratī, 1967 - 475 lappuses |
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1.–3. rezultāts no 83.
122. lappuse
... यहां काव्यालंकार ही विवेच्य है । भरत ने अलङ्कार का लक्षण तो नहीं दिया है किन्तु नेपथ्यालंकार की तरह यहां भी करण व्युत्पत्ति हो ...
... यहां काव्यालंकार ही विवेच्य है । भरत ने अलङ्कार का लक्षण तो नहीं दिया है किन्तु नेपथ्यालंकार की तरह यहां भी करण व्युत्पत्ति हो ...
178. lappuse
... यहां तो सामथ्यं से व्यंजित व्यभिचारी के द्वारा रस का प्रतीति होती है । इसीलिए यह ध्वनि का दूसरा प्रकार है ( संलक्ष्य क्रम व्यंग्य ) ...
... यहां तो सामथ्यं से व्यंजित व्यभिचारी के द्वारा रस का प्रतीति होती है । इसीलिए यह ध्वनि का दूसरा प्रकार है ( संलक्ष्य क्रम व्यंग्य ) ...
219. lappuse
... यहां भी मुख्यार्थ बाघ मानकर लक्षित लक्षणा नहीं मानी जा सकती क्योंकि तब अनवस्था हो जाएगी । शब्द व्यापार के अतिरिक्त अनुमान से भी यहां ...
... यहां भी मुख्यार्थ बाघ मानकर लक्षित लक्षणा नहीं मानी जा सकती क्योंकि तब अनवस्था हो जाएगी । शब्द व्यापार के अतिरिक्त अनुमान से भी यहां ...
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अथवा अधिक अपने अभिनवगुप्त अर्थ अर्थात् अलंकार आदि आनन्दवर्धन आलोचना इन इन्होंने इस इस प्रकार ई० उसका उसके उसे एक ऐसा ओर कर करने कला कल्पना कवि कहा जा कहा है का काल कालिदास काव्य काव्य के किन्तु किया गया है किया है किसी की कुछ के कारण के द्वारा के लिए के साथ को कोई क्योंकि गए गया है गुण चाहिए जा सकता है जाता है जिस जी ने जो तक तथा तो था दिया दो दोनों नहीं है नाटक नाट्य नाम ने पर पृ० प्रकार प्रथम प्रयोग प्राप्त प्लेटो बात भरत भाव भी भेद मात्र मानते हैं माना जा सकता में ही यदि यह यहां या ये रस लक्षण वस्तु वह वही वाले विचार विवेचन विशेष वे शब्द शुक्ल जी संस्कृत सकती साहित्य से ही स्पष्ट हिन्दी हिन्दी साहित्य ही ही है हुआ है और है कि हैं हो सकता होता है होती होने